tag:blogger.com,1999:blog-5431623587861231173.post785569021783079220..comments2018-04-15T06:14:09.508-07:00Comments on अनुगूँज: हमें सुधरना होगा दामिनी और गुडिया, तुम्हे बचाने के लिएSujit Sinhahttp://www.blogger.com/profile/18402156267665941356noreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-5431623587861231173.post-18958200397475511632013-05-05T11:17:19.064-07:002013-05-05T11:17:19.064-07:00 आपका लेख जिस विषय पर केंद्रित होकर शुरू हुआ था, ... आपका लेख जिस विषय पर केंद्रित होकर शुरू हुआ था, बाद में विषय से भटक गया है, और अंत में फिर आप उस विषय पर लौटते हैं। लेकिन बिखड़ाव के कारण लेख सशक्त नहीं बन पाया है। दुष्कर्म की सबसे बड़ी वजह है मूल्यहीनता। हमारे समाज में पैसा कमाने और भोग के अतिरिक्त कोई मूल्य नहीं बचा है। मेरी इन कविताओं को पढ़िए :-<br /><br />दुष्कर्म<br />1.<br />छोटे-छोटे कसों, गाँवों<br />शहर से लेकर दिल्ली तक<br />हर आयु वर्ग की महिलाएँ<br />हाथों में नारों की तख्ती लिये<br />हवा में आक्रोश घोलतीं<br />कर रही हैं कदम ताल<br /><br />स्वगत करो इनका<br />ये महिलाएँ नहीं शलाका हैं<br />दुष्कर्म के खिलाफ कड़े कानून<br />और दुष्कर्मियों को फाँसी देने के पक्ष में<br />घर का दरवाजा दूसरी तरफ घुमा<br />निकल पड़ी हैं सड़क पर<br /><br />जाकि ये जानती हैं<br />घर में भी नहीं हैं सुरक्षित<br />और बाहर की दुनिया इन्हें<br />महज देह साबित करने पर है तुली<br />फिर भी कुछ करने की जिम्मेदारी<br />डाल रही हैं दूसरों पर<br />जैसे मौसम डाल दे<br />सुाह-शाम दोनों की जिम्मेदारी सूरज पर<br />और आकाश की हँसी पसड़ती रहे दूर-दूर तक<br /><br />पुलिस के करतब हो चुके हैं निर्थक<br />और प्रशासन असहाय बना बैठा है<br />जैसे अर्जुन के तरकश में<br />खत्म हो चुके हों तीर<br />या धँस चुका हो मौके पर कर्ण का रथ<br />ओफ! फिर दुष्कर्म...<br />आ तो बढ़ती ही जा रही हैं<br />ऐसी घटनाएँ लगातार<br />अरे! इतनी छोटी बच्ची के साथ<br />अरे! यह क्या...<br />पिता ने बेटी के साथ...<br /><br />सब शांत, चारों तरफ <br />पसड़ गया है एक कुत्सित मौन<br />झुक गयी झंडों-सी लहराती तख्ती<br />घर लौटीं वीरांगनाएँ<br />तकिए में मुँह दााए<br />अपनी संवेदना सिकोड़ रही हैं<br />कम-से-कम खुद को बचाने की अभिप्सा में...<br /><br />यह तो अपनी ही जिम्मेदारी से कतराना है<br />उठो! जरा आँखें साफ कर देखो<br />किसतरह बादलों के घर से<br />सूरज ने मुँह फेर लिया है <br />और आकाश बार-बार ठिकाने बदल रहा है<br /><br />हमने भी तो समाज के साथ<br />ऐसा ही सलूक किया है<br />इसलिए समाधान दिख नहीं रहा है<br />दुष्कर्म तो सिर्फ प्रतिफल है<br />समस्याएँ तो सामाजिक पतन की हैं<br />विवेकहीनता में वृद्धि की है<br />और इसकी भी वजह है<br />हमारे पास धनार्जन <br />और भोग के सिवा<br />किसी मूल्य की चेतना नहीं बची है<br /><br />देखो, कितनी तेजी से फैलता जा रहा है मेघ<br />इतनी तेजी से सिर्फ वही फैल सकता है<br />और उसे कोई रोक नहीं सकता<br />हमारा समाज भी ढलते आकाश में<br />मेघ की तरह बेतरतीब फैलता जा रहा है<br />जाकि किसी समाज को पुलिस <br />या सरकार नहीं बचाती<br />उसे अपनी शक्ति ही बचाती है<br />और यह मिलती है <br />नींव संजोती जिंदगी की मिट्टी से<br />इसलिए आवाजों की भीड़ में <br />नारों की बात मत करो<br />किसी संवेदनशीला मूल्य की <br />स्थापना के लिए संघर्ष करो<br /><br />जिस समाज में ऐसे कोई मूल्य नहीं हों<br />जिसके लिए स्वेच्छा से <br />जिया और मरा जाता हो<br />वहाँ केवल अपराधों की चर्चा करना<br />अपने-आप में अपराध है।<br /><br />2.<br />छोटी-छोटी<br />स्कूली बच्चियाँ<br />जिसने अभी<br />जिंदगी के आकाश में<br />पँख भी नहीं फड़फड़ाए हैं<br />उनके हाथों में<br />दुष्कर्म विरोधी नारों से लिपटा<br />डंडा थमा दिया गया है<br />और वह भी इसे<br />स्वतंत्रता दिवस का झंडा समझ<br />उत्साह से जुलूस में चल पड़ी हैं<br /><br />इतिहास का सबसे हास्यास्पद<br />या सबसे करुण होगा यह दृश्य<br />जिसे हम अभी सिखा भी नहीं सकते <br />ठीक से चलना<br />इससे पहले ही बता दे रहे हैं<br />कैसे है तुम्हें सम्हलना<br />कि चलने से पहले ही डरना।<br /><br /><br />समय से संवादhttps://www.blogger.com/profile/01783457049712940786noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5431623587861231173.post-63073607143299432192013-04-27T07:51:31.552-07:002013-04-27T07:51:31.552-07:00नारी अधिकारो की जो ये चेतना हम अचानक देख रहे है यह...नारी अधिकारो की जो ये चेतना हम अचानक देख रहे है यह बड़ी ही सतही है क्योंकि इस चेतना की जड़े बाजारवाद से उपजी है जहां नारी या यू कहिए हर चीज़ की importance बाज़ार के लिए उसकी उपयोगिता से है। नारी शशक्तिकरण की चाह बाज़ार को उसकी सीमाए बढ़ाने के कारण है। श्शक्त नारी ज्यादा demanding होगी, जायदा खरीददारी करेगी, इस लिए उसे पुरुष ( इसे परिवार पढे ) से मुक्त करे। यही कारण है की बाजारवादी परिवार के concept को ही धवस्त करने मे लगे है। अब builders के adv देखे। उसमे घर मे पति और आधे अधुरे कपड़े पहने पत्नी ही है , हाँ कही कही गलती से बच्चा दिख जाएगा। घर के बुजुर्ग तो कही है ही नहीं। अब मर्दो के undergarments या condom बेचने के लिए नारी पात्रो के प्रयोग का क्या औचित्य? तो गुड़िया और दामिनी को बचाने के लिए ये नौटंकी करने के अलावा कुछ अन्य छीजो को भी सुधारणा होगा। कानून बनाने या धरना आदि से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/07008868862350946131noreply@blogger.com