पांच वर्षीया गुड़िया
के साथ हुए दरिंदगी से समूचा देश-समाज स्तब्ध है | चहुँओंर जुगुप्सा कहकहे लगा रही
है | मानवता शर्मशार है | इस जघन्य अपराध के प्रतिकार में जन हुजूम सड़कों पर उमड़
पड़ा है , ठीक वैसे ही जैसे दिसम्बर में दामिनी के साथ हुए हादसे के बाद एकजुट खड़ा
हुआ था | विशाल जनाक्रोश को देखकर तसल्ली होती है कि दरिंदगी के अनवरत वज्राघात के
बावजूद संवेदनशीलता के कोपंल पूरी तरह कुचल नही पाए हैं | वे इंसानियत के बगिये
में बहुत हद तक मह्फूज हैं | हाँ, पारस्परिक विश्वास के वितान में सिकुरन अवश्य
आयी है |
इस
विषय पर विमर्श करते हुए इस बिन्दू पर गौर करने की जरूरत है कि क्या सड़कों पर उतरे
पुरुष सचमुच अपने सारे पूर्वाग्रहों को छोड़कर नारी का हित चाहने लगे हैं या इस
वीभत्स कृत्य से बौखलाकर, आवेश में सड़कों पर उतर आये हैं? वे क्या चाहते हैं कि
महिलाओं के साथ रेप न हो या किसी भी प्रकार की प्रताडना न हो ? चूंकि बलात्कार
समाज के परम्परा या व्यवस्था में अनुचित है इसलिए विरोध हो रहा है या पुरुष सच में
परम्परा व व्यवस्था में बदलाव के लिये आगे आ रहे हैं | गौरतलब है कि समाज में कई
ऐसे तरीके या व्यवस्था हैं जो नारी गरिमा के अनुकूल नहीं है | चूंकि वे पुरुषों के
प्रभुत्व के लिए जरूरी है इसलिए उसमे बदलाव की बात नहीं होती है | सदियों से सताई
नारी , धर्म की घुंटी पी-पी कर बड़ी हुई नारी इसे अपनी नियति मानकर जहालत में जीने
के लिये अभिशप्त रही है |शिक्षा के प्रसार और युगीन बदलाव के कारण नारी भी अपने अस्तित्व
का महत्व समझने लगी है | और धीमे-धीमे ही सही बदलाव के फुहार होने लगे हैं | फिर
भी समाज की कुछ विसंगतियाँ ऐसी हैं जो परम्परा के नाम पर बदस्तूर जारी हैं और हम
उसे परम्परा और व्यवस्था के नाम पर खींच रहें हैं |
यह विडम्बना ही है
की नारी स्वातंत्र्य और सामूहिक चेतना के बारम्बार आह्वान के बावजूद भारत के मध्य
वर्ग (विशेषतया निम्न मध्यवर्ग ) के महिलाओं की स्थिति जस की तस है |अमूनन आज भी
उनके प्रति जिम्मेवारी शादी कर देने तक समझी जाती है | लड़कियों के रंग-रूप ,
प्रतिभा का उपयोग इतना ही है कि उनकी शादी अच्छे घरों में हो जाये | समाज में शादी
के लिये लड़के वालों की डिमांड गोरा रंग , छ्हररा बदन और दहेज़ के रूप में मोटी रकम
होती है | लड़की के अन्य गुण गौण होते हैं | गौर करें तो यहाँ लड़की के प्रति एक लड़के
वाले की सोच क्या होती है ? क्या वहां केवल भोग की लिप्सा प्रच्छन नहीं ? यह
प्रच्छ्नता व्यवस्था के नाम पर है और बलात्कार में लिप्सा हैवानियत के नाम पर |
इसलिए मानसिकता में बदलाव दोनों ही जगह अपेक्षित है | शादी के लिये लड़की को जांचा –परखा जाता है | ये परखना
बस वैसे ही होता है जैसे कोई ग्राहक ‘माल’ खरीदने से पहले मौल –तौल करता है और
लड़की वाले दूकानदार के मानिंद ‘सामान’ की क्वाय्लिटी बताते जाते हैं | एक साथ कई
आँखे लड़की के अंग –अंग को भेदती जाती है | सोच कर ही रोहं सिहर जाता है कि लड़की
किस बदहवासी से गुजरती है | फिर भी हमें फर्क नही पड़ता क्योंकि हम ऐसा देखते आयें
हैं और सिस्टम मान बैठे हैं | आज कोई मेरी बहन के साथ ऐसा कर रहा है , कल हम किसी
की बहन के साथ ऐसा करेंगे | परन्तु उस समय हम ये भूल जाते हैं कि बहन किसी की हो ,
अपमान हमेशा एक नारी का ही होता है |
गोराई
के प्रति पूर्वाग्रह तो देखते ही बनता है
| गोरा रंग सुन्दरता और अभिजात्य होने का प्रतीक बन गया है | गोरी चमड़ी के प्रति
हमारा मोह किस मानसिकता को दर्शाता है ? बात तो तब और भी वीभत्स लगती है जब लोग
अपने कुतर्कों से इसे ‘पसंद की अभिव्यक्ति’ बताने लगते हैं|
इसके अलावे दहेज़ ने
तो समाज में दहशत फैला रखी है | अच्छा पैसा गठरी में है तो अच्छा लड़का मिल जायेगा
अन्यथा लड़की घर बैठे बुडी हो जाएगी | शादी में अच्छा लड़का का मतलब घर-बार , नौकरी
वाला समझा जाता है | मार्किट में हर लड़का का रेट तय है | शादी भी तरक-भरक वाली
होनी चाहिए और वो भी लड़की वालों के खर्च पर | कारण यह है कि ऐसी शादी से सामाजिक
प्रतिष्ठा बढती है | फलां बाबू के बेटे की शादी में बनारस की लोंडिया नाची थी ? ये
लोंडिया कौन है ? इसे किसने पैदा किया ? इन सवालों को लेकर कोई उबाल नही आता , कोई
बवाल नहीं मचता | क्योंकि ऐसी व्यवस्था पुरुष प्रभुत्व समाज के गलीज मानसिकता को
तुष्ट करते हैं |
पूंजीवाद ने माहौल
को जहरीला बनाने में कोई कसर नही छोड़ी है | इसने हर समाज –परिवार के ताने बाने को
नष्ट किया है | जीवन का उद्देश्य कंचन, कामिनी और सुरा रह गया है | पूंजीवाद ने चारों
और एक महीन मायाजाल बुना है | जिसमे सबसे ज्यादा महिलाएं ही फंसी है | नारी
स्वांत्र्य के नाम पर उन्हें प्रोडक्ट बनाकर बेचा गया है | पूरी की पूरी जिन्दगी
‘टारगेट –टारगेट और टारगेट’ में समा गया है | नतीजतन अवसाद, निराशा, कुंठा चारो और
घर कर गयी है | जिसका दुष्परिणाम कई तरह से सामने आ रहा है |
भारतीय समाज कई अंतर्विरोधों से
गुजर रहा है |सामंती हेठी अभी पूरी तरह गयी नहीं है और महिलाओं का अपनी सीमाओं का
तोडना उसे रास नही आ रहा है | इसलिए
महिलाओं के प्रति अत्याचार बडे हैं | यहाँ तक की बच्चियां भी सुरक्षित नहीं हैं |
ऐसे ही सरांध भरे
माहौल से कोई दरिंदा निकल कर दामिनी या गुड़िया जैसे मासूम को रोंद जाता है तो समाज बौखला उठता है | सड़कों पर निकल आता है| सड़कों पर निकलना, विरोध करना सुकून
पहुंचाते हैं कि अभी हमारी चेतना निस्तेज नहीं हुई है | फिर क्यों न हम इस चेतना
का सर्जनात्मक उपयोग उन कमियों को दूर करने में करे जो परम्परा और व्यवस्था के नाम
पर समाज में गहरे तक पैठ गया है | नारी गरिमा की सुरक्षा की शुरुआत तो अपने घर के
देहरी से ही करना होगा |
2 comments:
नारी अधिकारो की जो ये चेतना हम अचानक देख रहे है यह बड़ी ही सतही है क्योंकि इस चेतना की जड़े बाजारवाद से उपजी है जहां नारी या यू कहिए हर चीज़ की importance बाज़ार के लिए उसकी उपयोगिता से है। नारी शशक्तिकरण की चाह बाज़ार को उसकी सीमाए बढ़ाने के कारण है। श्शक्त नारी ज्यादा demanding होगी, जायदा खरीददारी करेगी, इस लिए उसे पुरुष ( इसे परिवार पढे ) से मुक्त करे। यही कारण है की बाजारवादी परिवार के concept को ही धवस्त करने मे लगे है। अब builders के adv देखे। उसमे घर मे पति और आधे अधुरे कपड़े पहने पत्नी ही है , हाँ कही कही गलती से बच्चा दिख जाएगा। घर के बुजुर्ग तो कही है ही नहीं। अब मर्दो के undergarments या condom बेचने के लिए नारी पात्रो के प्रयोग का क्या औचित्य? तो गुड़िया और दामिनी को बचाने के लिए ये नौटंकी करने के अलावा कुछ अन्य छीजो को भी सुधारणा होगा। कानून बनाने या धरना आदि से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला
आपका लेख जिस विषय पर केंद्रित होकर शुरू हुआ था, बाद में विषय से भटक गया है, और अंत में फिर आप उस विषय पर लौटते हैं। लेकिन बिखड़ाव के कारण लेख सशक्त नहीं बन पाया है। दुष्कर्म की सबसे बड़ी वजह है मूल्यहीनता। हमारे समाज में पैसा कमाने और भोग के अतिरिक्त कोई मूल्य नहीं बचा है। मेरी इन कविताओं को पढ़िए :-
दुष्कर्म
1.
छोटे-छोटे कसों, गाँवों
शहर से लेकर दिल्ली तक
हर आयु वर्ग की महिलाएँ
हाथों में नारों की तख्ती लिये
हवा में आक्रोश घोलतीं
कर रही हैं कदम ताल
स्वगत करो इनका
ये महिलाएँ नहीं शलाका हैं
दुष्कर्म के खिलाफ कड़े कानून
और दुष्कर्मियों को फाँसी देने के पक्ष में
घर का दरवाजा दूसरी तरफ घुमा
निकल पड़ी हैं सड़क पर
जाकि ये जानती हैं
घर में भी नहीं हैं सुरक्षित
और बाहर की दुनिया इन्हें
महज देह साबित करने पर है तुली
फिर भी कुछ करने की जिम्मेदारी
डाल रही हैं दूसरों पर
जैसे मौसम डाल दे
सुाह-शाम दोनों की जिम्मेदारी सूरज पर
और आकाश की हँसी पसड़ती रहे दूर-दूर तक
पुलिस के करतब हो चुके हैं निर्थक
और प्रशासन असहाय बना बैठा है
जैसे अर्जुन के तरकश में
खत्म हो चुके हों तीर
या धँस चुका हो मौके पर कर्ण का रथ
ओफ! फिर दुष्कर्म...
आ तो बढ़ती ही जा रही हैं
ऐसी घटनाएँ लगातार
अरे! इतनी छोटी बच्ची के साथ
अरे! यह क्या...
पिता ने बेटी के साथ...
सब शांत, चारों तरफ
पसड़ गया है एक कुत्सित मौन
झुक गयी झंडों-सी लहराती तख्ती
घर लौटीं वीरांगनाएँ
तकिए में मुँह दााए
अपनी संवेदना सिकोड़ रही हैं
कम-से-कम खुद को बचाने की अभिप्सा में...
यह तो अपनी ही जिम्मेदारी से कतराना है
उठो! जरा आँखें साफ कर देखो
किसतरह बादलों के घर से
सूरज ने मुँह फेर लिया है
और आकाश बार-बार ठिकाने बदल रहा है
हमने भी तो समाज के साथ
ऐसा ही सलूक किया है
इसलिए समाधान दिख नहीं रहा है
दुष्कर्म तो सिर्फ प्रतिफल है
समस्याएँ तो सामाजिक पतन की हैं
विवेकहीनता में वृद्धि की है
और इसकी भी वजह है
हमारे पास धनार्जन
और भोग के सिवा
किसी मूल्य की चेतना नहीं बची है
देखो, कितनी तेजी से फैलता जा रहा है मेघ
इतनी तेजी से सिर्फ वही फैल सकता है
और उसे कोई रोक नहीं सकता
हमारा समाज भी ढलते आकाश में
मेघ की तरह बेतरतीब फैलता जा रहा है
जाकि किसी समाज को पुलिस
या सरकार नहीं बचाती
उसे अपनी शक्ति ही बचाती है
और यह मिलती है
नींव संजोती जिंदगी की मिट्टी से
इसलिए आवाजों की भीड़ में
नारों की बात मत करो
किसी संवेदनशीला मूल्य की
स्थापना के लिए संघर्ष करो
जिस समाज में ऐसे कोई मूल्य नहीं हों
जिसके लिए स्वेच्छा से
जिया और मरा जाता हो
वहाँ केवल अपराधों की चर्चा करना
अपने-आप में अपराध है।
2.
छोटी-छोटी
स्कूली बच्चियाँ
जिसने अभी
जिंदगी के आकाश में
पँख भी नहीं फड़फड़ाए हैं
उनके हाथों में
दुष्कर्म विरोधी नारों से लिपटा
डंडा थमा दिया गया है
और वह भी इसे
स्वतंत्रता दिवस का झंडा समझ
उत्साह से जुलूस में चल पड़ी हैं
इतिहास का सबसे हास्यास्पद
या सबसे करुण होगा यह दृश्य
जिसे हम अभी सिखा भी नहीं सकते
ठीक से चलना
इससे पहले ही बता दे रहे हैं
कैसे है तुम्हें सम्हलना
कि चलने से पहले ही डरना।
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