दलित आन्दोलन के प्रति कुछ चिंताएं
दलितों का समाज के किसी भी मुख्यधारा में उचित प्रतिनिधित्व नही है |उन्हें सदियों से जान बुझकर अलग थलग रखा गया है | निस्संदेह ऐसी व्यवस्था अनैतिक और आधारहीन है | आज दलित अपने अधिकार और अस्मिता को लेकर सजग हुए हैं और वक्त का तकाजा है कि स्वर्ण जातियां अपने पूर्वाग्रहों को छोड़कर सच्चाई को स्वीकार करे | समाज के एक बड़े वर्ग के उपेक्षा के कारण ही भारत अपने सुदीर्घ गौरवशाली अतीत के बावजूद सदियों तक गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा रहा | मिथ्या जातीय यशोगान और अभिजात्य सोच ने देश को रसातल में पहुंचा दिया | एक बड़े वर्ग की उपेक्षा कर के कोई भी समाज भला जिन्दा कैसे रह सकता है ? बावजूद इसके भारतीय समाज के जिन्दा बचे रहने का कारण दलितों की सहनशीलता, मानवीय सौहाद्रता में विश्वास और अपनी मिटटी से प्यार रहा हैं | लिहाजा , यह समय का तकाजा है की हम अपनी गलतियों को सुधारे |
रही बात विभिन्न संस्थानों में उचित प्रतिनिधित्व की तो उन्हें (दलितों) जरूर मिलना चाहिए लेकिन केवल इसलिए नही कि वे दलित है |उन्हें इसलिए अवसर मिलना चाहिए कि वे योग्य हैं और उनका यह अधिकार है | केवल सर्वेक्षणों और आंकड़े के बल पर अगड़ी-पिछड़ी की लड़ाई लड़ने से समाज में केवल अर्थहीन प्रतिक्रिया ही उत्पन्न होगी जो अंततः हमे कहीं नही ले जाएगी |समाज में दमनकारी और दमित चेहरे भर बदल जायेंगे, लेकिन समाज और देश का मूल दांचा वही रह जायेगा | गौरतलब है कि समाज की विसंगतियों का सबसे ज्यादा शिकार दलित के अलावे ,महिलाएं(स्वर्ण सहित) और अल्पसंख्यक भी रहे हैं क्योंकि वे आर्थिक रूप से कमजोर रहे हैं और उन्हें रखा भी गया है | इसलिए उनका भी ख्याल रखना होगा | कहने का तात्पर्य यह है की बदलाव के ‘बयार’ को ‘उन्माद’ में बदलने से रोकना होगा | दलित उत्थानके अनुषंगी कार्यक्रम के रूप में आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के लिये भी समन्वयकारी कार्यकम चलाने होगें | यह याद रखना जरूरी है कि भारत की मूल प्रवृति ही सामंतवादी है |जिसे नष्ट करना जरूरी है | क्या यह दुर्भाग्यपूर्ण नही है की अपनी प्रतिभा और मेहनत के बल पर सफलता प्राप्त करने वाला दमित जाति का व्यक्ति आगे चलकर खुद को समाज के अभिजात्य वर्ग तक सीमित कर लेता है | और मूल उदेश्य कहीं दूर पीछे छूट जाते हैं |
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