उत्सव को धर्म से खतरा है
उत्सव हमारे तंग-परेशान जिन्दगी में हंसी-ख़ुशी के कुछ पल लाते हैं और सांस्कृतिक विरासत का भान कराते हैं | राम-कृष्ण से जुड़े किस्से और उनके आदर्श का जनमानस पर गहरा प्रभाव है और वे समाज के सांस्कृतिक पहचान हैं | भारतीय समाज में राम या कृष्णा के सांस्कृतिक प्रभाव से कोई इंकार नही कर सकता बावजूद इसके कि कुछ लोगों के अपने निजी विचार क्या है? संस्कृति किसी धर्म विशेष तक महदूद नही होती | उसका विस्तार व्यापक होता है| दुर्भाग्य से, उत्सव को धर्म के नशीले रंग में रंगने की साजिश रची जा रही है | उत्सव शक्तिप्रदर्शन और दुसरे धर्मों के लोगों को डराने का एक ओजार बनता जा रहा है और इस कुटिलता पर किसी भी धर्म को क्लीन चिट नही दी जा सकती | |कोई किसी से कम से नहीं है, बस मौका मिलने की जरूरत होती है | रामनवमी और विजयादशमी पर तो शस्त्रों का प्रदर्शन बेखौफ किया जाता रहा है और धर्म के नाम पर सभी आँखे मूंदे रहते हैं | कुछेक साल पहले बसंत-पंचमी और मुहम्मद साहेब का जन्मदिन एक ही तारीख को पड़ा था | और हमारे यहाँ मुसलमानों ने पहली बार जूलुस निकाला |किसी को भी इस बात से गुरेज नहीं हो सकता कि कोई समुदाय अपने पैगम्बर के जन्मदिन को न मनाये | लेकिन यहाँ बात दूसरी थी | बसंत- पंचमी के दिन हिन्दुओं के उत्सव (जगह-जगह पूजा पंडाल और भीड़-भाड)के प्रतिक्रिया में ये जुलुस निकलने का निर्णय लिया गया था | मेरे एक मुस्लिम दोस्त ने जुलुस निकालने के नियत पर सवाल उठाया तो उसे काफ़िर कहकर दुत्कारा गया | और इस तरह पहली बार हमारे इलाके में साम्प्रदायिकता की 'बू' फैली | कट्टरता ने सामाजिक- सांस्कृतिक वातावरण में सरांध पैदा की | कहने का तात्पर्य यह है कि कुछ स्वार्थी-उन्मादी तत्व इस देश में आम आदमी के धार्मिक भावनाओं का भयादोहन करते है |उनका उदेश्य हमारी सांस्कृतिक चेतना का वध करना और अपने स्वार्थों की पूर्ति करना है | उत्सव मानना चाहिए , लेकिन उसे धर्म के कसौटी पर कसना बेमानी है |
2 comments:
दुर्भाग्य से, उत्सव को धर्म के नशीले रंग में रंगने की साजिश रची जा रही है . दुर्भाग्य से नहीं सौभाग्य से. हमारी संस्कृति में कोई भी काम धर्म से विरत है ही नहीं. हमारा हर काम ईश्वर को समर्पित होता है. हाँ, अगर हम उन्माद को हीं धारण मान बैठे तो अलग बात है.
उत्सवधर्मिता के रंग मनुष्यता से भरे हों ....
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