Saturday, April 21, 2012

हाँ जी ,हम भी हिन्दू हैं


हिन्दू  और हिन्दुस्तानी कौन हैं ? इसका फैसला कौन करेगा ? हिंदी, हिन्दू और हिन्दुस्तानी कल्चर पर हो-हल्ला करने और स्वयंभू निर्णायक  होने की जिम्मेवारी एक  समूह विशेष ने ले रखी  है । जो लोग मनुवादी सिस्टम  का समर्थन करे, अप्रासंगिक पुरानी मिथकों को परम्परा के नाम पर डोए...केवल वही हिन्दुस्तानी और हिन्दू हैं | जो लोग कट्टरता का विरोध करे और हिन्दुइज्म के कमियों की और इशारे करे वो काफ़िर और संस्कारहीन | अब प्रश्न है कि ये कौन हैं ? इनका निजी स्वार्थ क्या है? ये वही हिन्दू धर्म के ठीकेदार हैं जिन्होंने लोगों की पैदाइश  ब्रह्मा के अलग-अलग अंगो से  बताकर माँ के कोख का अपमान किया | केवल  कुछ जाति के लोगों को ही शिक्षा के लायक समझा |   आस्था के नाम पर  लोगों का भयादोहन किया गया ।  नाना -नाना तरीके से उन्होंने हिन्दू धर्म को "पॉकेट धर्म" बनाने की कोशिश की | फिर भी हिन्दू धर्म में आम लोगो की आस्था बनी  रही  | क्योंकि हिन्दुइस्म संस्कार है, सांस है, जीवन दर्शन है | ये मात्र कुछ लोगों की संस्था बन ही नहीं सकती | इसका स्वरुप विराट है | इसने हर कल्चर के अच्छाइयों को आत्मसात किया है | इसलिए आज भी जीवित है, जवान है| इसलिए आज भी पूरी दुनिया को आकर्षित करता है |दुर्भाग्य से आज भी कुछ समूह हिंदी, हिन्दू और हिंदुस्तान पर केवल अपनी दावेदारी जताते  हैं | सामंजस्यता उन्हें स्वीकार नहीं । उनका दिवास्वप्न है की वे फिर से ब्राहमणवादी सिस्टम को लागू कर पाएंगे ।
हमें किसी भी प्रकार के भुलावे में नहीं आना होगा | अन्धविश्वास और अपनी बुराइयों से खुद लड़ना होगा | परम्परा और आधुनिकता में सामंजस्य बैठाना  होगा | केवल मंदिर में माथा टेकना ही परम्परा नहीं,वरण  ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्न करना भी हमारी परम्परा का ही हिस्सा है | हिदू और हिंदुस्तान  किसी की बपौती नहीं है | ये हमारा है | चाहे हम हिन्दू हैं, मुस्लिम हैं या कम्युनिस्ट हैं - ये देश और संस्कृति हमारे सांस- सांस में बसी है । 

Tuesday, April 17, 2012

लिखते -लिखते

आज कुछ लिखने का मन हो रहा है | किस विषय पर लिखूं ! एक व्यक्ति में छुपी असीम संभावनाओं पर या उसकी क्षुद्रता पर....| कृत्रिमता के आत्केंद्रित रवैये पर या फिर प्रकृति की विराट सृजनात्मकता पर....| कोलाहल के बीच कोने पर टंगी ख़ामोशी और 'आत्म-पहचान' की तलाश में भटकती जिन्दगी के साथ-साथ अपने अंदर दफ़न शर्म और पछतावे भी कलम उठाते ही अपना -अपना हिसाब मांगने लगते हैं| सदियों की सिसकियाँ मौन के दरवाजे पर दस्तक देने लगती हैं | शायद इन्ही सिसकियों को चेखव, स्त्रिन्बर्ग , ज्योतिबा फूले, प्रेमचंद , गाँधी, मुक्तिबोध, या निर्मल वर्मा जैसे पीड़ित आत्माओं ने अपनी-अपनी तन्हाइयों में सुना होगा ? किसकी पुकार सुन सिद्धार्थ ने घर त्याग दिया था ? गिलगमेश और प्रोमेथियश ने क्यों खुद को दू:खों के भट्टी में झौंक दिया ?सदियों से धर्म और कुलीनता के नाम पर मानवीय सभ्यता ने जो त्रासदियाँ झेली हैं ....उनकी रुदन का हिसाब कौन और कब तक चुकता करेगा ?