Thursday, April 18, 2013


                                                       उत्सव को धर्म से खतरा है 

उत्सव हमारे तंग-परेशान जिन्दगी में हंसी-ख़ुशी के कुछ पल लाते हैं और सांस्कृतिक विरासत का भान कराते हैं | राम-कृष्ण से जुड़े किस्से और उनके आदर्श का जनमानस पर गहरा प्रभाव है और वे समाज के सांस्कृतिक पहचान हैं | भारतीय समाज में राम या कृष्णा के सांस्कृतिक प्रभाव से कोई इंकार नही कर सकता बावजूद इसके कि कुछ लोगों के अपने निजी विचार क्या है? संस्कृति किसी धर्म विशेष तक महदूद नही होती | उसका विस्तार व्यापक होता है| दुर्भाग्य  से, उत्सव को धर्म के नशीले रंग में रंगने की साजिश रची जा रही है | उत्सव शक्तिप्रदर्शन और दुसरे धर्मों  के लोगों को डराने का एक ओजार बनता जा रहा है  और इस कुटिलता पर किसी भी धर्म को  क्लीन चिट नही दी जा सकती | |कोई किसी से कम से नहीं है, बस मौका मिलने की  जरूरत होती है | रामनवमी और विजयादशमी पर  तो शस्त्रों का प्रदर्शन बेखौफ किया जाता रहा है और धर्म के नाम पर सभी आँखे मूंदे रहते हैं | कुछेक साल पहले बसंत-पंचमी और मुहम्मद साहेब का जन्मदिन एक ही तारीख को पड़ा था  | और हमारे यहाँ  मुसलमानों ने पहली बार जूलुस निकाला |किसी को भी इस बात से गुरेज नहीं हो सकता कि कोई समुदाय अपने पैगम्बर के जन्मदिन  को न मनाये | लेकिन यहाँ बात दूसरी थी | बसंत- पंचमी के दिन हिन्दुओं के उत्सव  (जगह-जगह पूजा पंडाल और भीड़-भाड)के प्रतिक्रिया में ये जुलुस निकलने का निर्णय लिया गया था | मेरे एक मुस्लिम दोस्त ने जुलुस निकालने के नियत पर सवाल उठाया तो उसे काफ़िर कहकर दुत्कारा गया | और इस तरह पहली बार हमारे इलाके में साम्प्रदायिकता की 'बू' फैली | कट्टरता ने सामाजिक- सांस्कृतिक वातावरण में सरांध पैदा की | कहने का तात्पर्य यह है कि कुछ स्वार्थी-उन्मादी तत्व इस देश में आम आदमी के धार्मिक भावनाओं का भयादोहन करते है |उनका उदेश्य हमारी सांस्कृतिक चेतना का वध करना और अपने स्वार्थों की पूर्ति करना है | उत्सव मानना चाहिए  , लेकिन उसे धर्म  के कसौटी पर कसना बेमानी है |  












Saturday, April 13, 2013



जय भीम ! जय भारत !


आज बाबा साहेब श्री भीमराव अम्बेडकर का जन्मदिन है | उनकी जैसी शख्शियत के बारे में मैं क्या कुछ लिख पाउँगा | लेकिन लिखना चाहता हूँ ताकि उन्हें अपनी श्रदा सुमन अर्पित कर सकूं | 

समाज के अत्यंत दमित वर्ग में जन्मे बाबा साहेब ने आजीवन भारतीय सामाजिक रूदियों के दंश सहे | ये दंश भारतीय समाज के बड़े वर्ग को सदियों से सहना पड़ना पड़ रहा था, और आज भी किसी न किसी रूप में बदस्तूर जारी है | बाबा साहेब के जीवन संधर्भ को जानने की कोशिश करते हुए समाज के एक बड़े वर्ग के प्रति अत्याचार की ऐतिहासिकता को समझा जा सकता है | जो समूचे मानवता को शर्मसार करती है | क्या हम ऐसे समाज में रहना पसंद करेंगे, जहाँ का एक वर्ग केवल किसी खास कुल में जन्म लेने के कारण त्याज्य हो ? क्यों हमारी संवेदना एक सीमा तक पहुँच कर सुन्न पड़ जाती है ? दुर्भाग्य से ऐसा पूर्वाग्रह आज भी बदस्तूर जारी है | हाँ, इसमें आ रहे बदलाव की आहत सुनायी दे रही है |

आज बाबा साहेब को जीवन सन्दर्भ को निरपेक्षता से समझने की और ज्यादा आवश्यकता है | क्योंकि आरक्षण के राजनीतिकरण और जातीय राजनीति आदि के लिये समाज का एक बड़ा तबका उन्हें जिम्मेवार मानता है | नतीजतन समाज में अगड़ों -पिछड़ों के बीच कटू प्रतिक्रिया उत्पन्न हो रही है , जो देश, समाज के लिये हितकर नहीं है | बाबा साहेब दलित- दमित वर्ग को मुख्य धारा से जोड़ना चाहते थे | धर्म के वर्ण व्यवस्था को तोड़कर धर्म का समूल नाश चाहते थे | उन्होंने कभी जाति की राजनीति नही की | दुर्भाग्य से उन्हें आज एक खास वर्ग का नेता बनाने की कोशिश की जा रही है |हमे ऐसे बहकावे में आने से बचना होगा | जय भीम ! जय भारत !

Saturday, April 6, 2013



                                    दलित आन्दोलन के प्रति कुछ चिंताएं 

दलितों का समाज के किसी भी मुख्यधारा में उचित प्रतिनिधित्व नही है |उन्हें सदियों से जान बुझकर अलग थलग रखा गया है | निस्संदेह ऐसी व्यवस्था अनैतिक और आधारहीन है | आज दलित अपने अधिकार और अस्मिता को लेकर सजग हुए हैं और वक्त का तकाजा है कि स्वर्ण जातियां अपने पूर्वाग्रहों को छोड़कर सच्चाई को स्वीकार करे | समाज के एक बड़े वर्ग के उपेक्षा के कारण ही भारत अपने सुदीर्घ गौरवशाली अतीत के बावजूद सदियों तक गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा रहा | मिथ्या जातीय यशोगान और अभिजात्य सोच ने देश को रसातल में पहुंचा दिया | एक बड़े वर्ग की उपेक्षा कर के कोई भी समाज भला जिन्दा कैसे रह सकता है ? बावजूद इसके भारतीय समाज के जिन्दा बचे रहने का कारण दलितों की सहनशीलता, मानवीय सौहाद्रता में विश्वास और अपनी मिटटी से प्यार रहा हैं | लिहाजा , यह समय का तकाजा है की हम अपनी गलतियों को सुधारे |
रही बात विभिन्न संस्थानों में उचित प्रतिनिधित्व की तो उन्हें (दलितों) जरूर मिलना चाहिए लेकिन केवल इसलिए नही कि वे दलित है |उन्हें इसलिए अवसर मिलना चाहिए कि वे योग्य हैं और उनका यह अधिकार है | केवल सर्वेक्षणों और आंकड़े के बल पर अगड़ी-पिछड़ी की लड़ाई लड़ने से समाज में केवल अर्थहीन प्रतिक्रिया ही उत्पन्न होगी जो अंततः हमे कहीं नही ले जाएगी |समाज में दमनकारी और दमित चेहरे भर बदल जायेंगे, लेकिन समाज और देश का मूल दांचा वही रह जायेगा | गौरतलब है कि समाज की विसंगतियों का सबसे ज्यादा शिकार दलित के अलावे ,महिलाएं(स्वर्ण सहित) और अल्पसंख्यक भी रहे हैं क्योंकि वे आर्थिक रूप से कमजोर रहे हैं और उन्हें रखा भी गया है | इसलिए उनका भी ख्याल रखना होगा | कहने का तात्पर्य यह है की बदलाव के ‘बयार’ को ‘उन्माद’ में बदलने से रोकना होगा | दलित उत्थानके अनुषंगी कार्यक्रम के रूप में आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के लिये भी समन्वयकारी कार्यकम चलाने होगें | यह याद रखना जरूरी है कि भारत की मूल प्रवृति ही सामंतवादी है |जिसे नष्ट करना जरूरी है | क्या यह दुर्भाग्यपूर्ण नही है की अपनी प्रतिभा और मेहनत के बल पर सफलता प्राप्त करने वाला दमित जाति का व्यक्ति आगे चलकर खुद को समाज के अभिजात्य वर्ग तक सीमित कर लेता है | और मूल उदेश्य कहीं दूर पीछे छूट जाते हैं |
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Saturday, April 21, 2012

हाँ जी ,हम भी हिन्दू हैं


हिन्दू  और हिन्दुस्तानी कौन हैं ? इसका फैसला कौन करेगा ? हिंदी, हिन्दू और हिन्दुस्तानी कल्चर पर हो-हल्ला करने और स्वयंभू निर्णायक  होने की जिम्मेवारी एक  समूह विशेष ने ले रखी  है । जो लोग मनुवादी सिस्टम  का समर्थन करे, अप्रासंगिक पुरानी मिथकों को परम्परा के नाम पर डोए...केवल वही हिन्दुस्तानी और हिन्दू हैं | जो लोग कट्टरता का विरोध करे और हिन्दुइज्म के कमियों की और इशारे करे वो काफ़िर और संस्कारहीन | अब प्रश्न है कि ये कौन हैं ? इनका निजी स्वार्थ क्या है? ये वही हिन्दू धर्म के ठीकेदार हैं जिन्होंने लोगों की पैदाइश  ब्रह्मा के अलग-अलग अंगो से  बताकर माँ के कोख का अपमान किया | केवल  कुछ जाति के लोगों को ही शिक्षा के लायक समझा |   आस्था के नाम पर  लोगों का भयादोहन किया गया ।  नाना -नाना तरीके से उन्होंने हिन्दू धर्म को "पॉकेट धर्म" बनाने की कोशिश की | फिर भी हिन्दू धर्म में आम लोगो की आस्था बनी  रही  | क्योंकि हिन्दुइस्म संस्कार है, सांस है, जीवन दर्शन है | ये मात्र कुछ लोगों की संस्था बन ही नहीं सकती | इसका स्वरुप विराट है | इसने हर कल्चर के अच्छाइयों को आत्मसात किया है | इसलिए आज भी जीवित है, जवान है| इसलिए आज भी पूरी दुनिया को आकर्षित करता है |दुर्भाग्य से आज भी कुछ समूह हिंदी, हिन्दू और हिंदुस्तान पर केवल अपनी दावेदारी जताते  हैं | सामंजस्यता उन्हें स्वीकार नहीं । उनका दिवास्वप्न है की वे फिर से ब्राहमणवादी सिस्टम को लागू कर पाएंगे ।
हमें किसी भी प्रकार के भुलावे में नहीं आना होगा | अन्धविश्वास और अपनी बुराइयों से खुद लड़ना होगा | परम्परा और आधुनिकता में सामंजस्य बैठाना  होगा | केवल मंदिर में माथा टेकना ही परम्परा नहीं,वरण  ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्न करना भी हमारी परम्परा का ही हिस्सा है | हिदू और हिंदुस्तान  किसी की बपौती नहीं है | ये हमारा है | चाहे हम हिन्दू हैं, मुस्लिम हैं या कम्युनिस्ट हैं - ये देश और संस्कृति हमारे सांस- सांस में बसी है । 

Tuesday, April 17, 2012

लिखते -लिखते

आज कुछ लिखने का मन हो रहा है | किस विषय पर लिखूं ! एक व्यक्ति में छुपी असीम संभावनाओं पर या उसकी क्षुद्रता पर....| कृत्रिमता के आत्केंद्रित रवैये पर या फिर प्रकृति की विराट सृजनात्मकता पर....| कोलाहल के बीच कोने पर टंगी ख़ामोशी और 'आत्म-पहचान' की तलाश में भटकती जिन्दगी के साथ-साथ अपने अंदर दफ़न शर्म और पछतावे भी कलम उठाते ही अपना -अपना हिसाब मांगने लगते हैं| सदियों की सिसकियाँ मौन के दरवाजे पर दस्तक देने लगती हैं | शायद इन्ही सिसकियों को चेखव, स्त्रिन्बर्ग , ज्योतिबा फूले, प्रेमचंद , गाँधी, मुक्तिबोध, या निर्मल वर्मा जैसे पीड़ित आत्माओं ने अपनी-अपनी तन्हाइयों में सुना होगा ? किसकी पुकार सुन सिद्धार्थ ने घर त्याग दिया था ? गिलगमेश और प्रोमेथियश ने क्यों खुद को दू:खों के भट्टी में झौंक दिया ?सदियों से धर्म और कुलीनता के नाम पर मानवीय सभ्यता ने जो त्रासदियाँ झेली हैं ....उनकी रुदन का हिसाब कौन और कब तक चुकता करेगा ?

Wednesday, October 12, 2011

मानवीय चेतना और उसके अस्तित्व की साथर्कता


राजनामा.कॉम। मैं सोच सकता हूँ , इसलिए मेरा अस्तित्व है”, रिनी देकार्ते के इस कथन को स्वीकार लेने मात्र से आदमी के चेतना और उसके अस्तित्व की सार्थकता की शुरुआत होती है | प्रकृति ने चिंतन -मनन की क्षमता केवल आदमी को दी है | उसकी अपनी संवेदनशीलता और चेतनशीलता ने प्रकृति की  संभावनाओं को टटोला और इसी टोह  के क्रम में प्रकृति के कई रहस्यमय परतों को खोला है | इसलिए संसार गतिशील है और हर बदलाव में एक ही चीज स्थाई दिखती है  और वह है- ‘आदमी की चेतना’ | चेतना समय -समय पर आदमी के अस्तित्व , उसका मानकीकरण और बदलाव की पड़ताल करती रही है और तदनुसार अपेक्शित सुधार भी | तात्कालिक युगीन समस्याओं और शंकाओं तथा अलग- अलग मौलिक चिन्तनो ने कई विरोधाभासी सिध्यान्तो को जन्म दिया | मसलन वेदों में कही बातें और उपनिषद के दर्शन में विरोध है | समकालिक बुद्ध और महावीर के विचार कई विषयों पर अलग -अलग थे |
आधुनिक काल में विश्व के चिंतन धारा को प्रभावित करने वाले दो महापुरुषों कार्ल मार्क्स और महात्मा गाँधी के विचारों में भारी अंतर है | दरअसल ये भिन्नताएं चेतना की मौलिकता और नेरंतार्य के औचित्य को सिद्ध करते हैं | अलग -अलग विचारों के घर्षण से आदमी की चेतना और भी मुखर हुई | वैज्ञानिक विकाश और भौतिक उपलब्दियों के आलावे ‘मानवाधिकार ‘, नारी स्वतंत्रता और उसके गरिमा , सामंजस्य और सह- अस्तित्व जैसे मुधे  पर इन्सान ने प्रगति की है | आदिमयुग से लेकर वर्तमान युग तक चेतना के विकाश क्रम में १२१५ इसवी का मेग्नाकर्ता, १६६८ इसवी में इंग्लॅण्ड में हुए रक्तहीन क्रांति, फ्रांश की क्रांति (१७८९ ) , सर्वभोमिक मानवाधिकार घोषणापत्र , पर्यावरण को लेकर हुए ‘पृथ्वी सम्मेलन’ आदि मिल के पत्थर साबित हुए हैं | इन्टरनेट, सोशल साईटस , व टिवटर आदि ने चेतना के अभिव्यक्ति के नए द्वार खोले हैं | जहाँ से आम आदमी की चेतना की अनुगूँज पूरी दुनिया में सुनाई दे रही है | आदमी के अस्तित्व का अपना औचित्य है | उसके अपने विधेयक मूल्य हैं | जब कुछ भी उस पर आरोपित होता है , जो उसके विधेयकता का दलन करता है , तो वह विद्रोह कर बैठता है | दलन के खिलाफ उठाई गयी आवाज मानवीय समाज के सबसे विशिष्ट विधेयक मूल्य  हैं| 
                        आज पूरी दुनिया में इसी चेतना की हुंकार सुनाई दे रही है| अफ़्रीकी देशों में लोकतंत्र की स्थापना को लेकर हुए आन्दोलन और मिली सफलताऍ तो महज आगाज हैं | अरब में भी बदलाव के बयार चल रहे हैं, जिसे मीडिया जगत में ‘अरब स्प्रिंग ‘ कहा जा रहा है | अमेरिका में बेरोजगारों का प्रदर्शन , भारत में भ्रष्टाचार के किलाफ़ जनता की लामबंदी , पुरे विश्व में आतंक के विरुद्ध एकजुटता ने यह सिद्ध कर दिया है की कोई भी सिस्टम चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो , मानवीय गरिमा के प्रश्न को कुचल नही सकता | चेतना का अरुध प्रवाह ही सत्य है ,सुन्दर है |सामाजिक विषमताओं के विरुद्ध यह संघर्ष उस समय तक जारी रहेगा , जब तक हरेक व्यक्ति को अपने सृजन पर आधारित ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ‘ नहीं मिल जाति है | हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह संसार एक साझे की जिंदगी है और हम सोच सकते हैं , इसलिए हमारा अस्तित्व है | 
……………सुजीत सिन्हा